छोटे छोटे सवाल –३०
"नए आए हैं यहाँ ?" उस नवयुवक ने पूछा। वह सोच रहा था कि न यह व्यापारी हो सकता है, न छात्र। फिर कौन है ? मगर उसके चेहरे पर जिज्ञासा नहीं, स्वागत का भाव था। “जी हाँ, आज ही।" सत्यव्रत ने कहा और फिर पूरा परिचय देते हुए बोला, "सहायक अध्यापक के रूप में मेरी नियुक्ति इसी कॉलेज में हो गई है।" "कब ?" घोर आश्चर्य व्यक्त करते हुए उस नवयुवक ने अपने प्रश्न को तुरन्त ही दोहरा दिया, "कब से ?" "आज ही से।" सत्यव्रत ने जवाब दिया और नियुक्ति की प्रसन्नता से उसकी छाती फूल उठी। मन में असाधारणत्व का अनुभव करते हुए सौजन्य के नाते उसने पूछा, "और आप?" "मैं भी यहीं मास्टर हूँ। उस नवयुवक ने अपने बारे में बताते हुए कहा, "मेरा नाम जयप्रकाश है।"
अब सत्यव्रत के विस्मित होने की बारी थी। उसका असाधारणत्व घट गया था और वह 'आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई' वाली औपचारिक मुद्रा में खड़ा जयप्रकाश की ओर देख रहा था कि तभी नजीबाबाद जानेवाली गाड़ी की सीटी गूँज उठी, और भक-भक करती हुई गाड़ी के चलने की आवाज सुनाई दी। सत्यव्रत औपचारिकता निभाने से बच गया। स्टेशन से बचे-खुचे मुसाफ़िर और घूमने आए हुए लड़के शहर की ओर लौट पड़े। गूँगे के नौकर ने चिमनी साफ़ करके लालटेन जला दी। जयप्रकाश ने जेब से बंडल निकालकर एक और बीड़ी सुलगाते हुए कुछ रुककर सत्यव्रत से कहा, "वापस लौटना हो तो आइए। साथ ही रहेगा।" “जी हाँ, चलिए।" सत्यव्रत ने तुरन्त सहमत होते हुए कहा और दोनों एक-दूसरे से हुए इस आकस्मिक परिचय के विषय में सोचते शहर की ओर चल दिए।
सड़क सुनसान हो चुकी थी। कोई भटका हुआ पंछी पंख फड़फड़ाता हुआ सिर से गुजर जाता तो दोनों चौंककर पीछे देखने लगते थे। गूँगे की दुकान में लटकी हुई लालटेन की रोशनी बहुत मद्धिम हो गई थी और कॉलेज तथा रेलवे स्टेशन की इमारतें अँधेरे में डूबने लगी थीं। सिगनलों की लाल-लाल बत्तियाँ खेतों की बाड़ से झाँकती हुई आँख-मिचौनी खेल रही थीं। दूर जाते हुए विद्यार्थियों के जोरदार कहकहे, टेलीफ़ोन के खम्भों से उभरती हुई भायँ-भायँ की ध्वनियाँ और छोटे तालाब पर टिटहरियों की प्यासी आवाजें, सन्नाटे के तारों पर मरी हुई चमगादड़ों-जैसी टँगी थीं।